Udvidet returret til d. 31. januar 2025

Bøger af B R_ambedkar

Filter
Filter
Sorter efterSorter Populære
  • af B R_ambedkar
    299,95 kr.

    This is a reproduction of a book published before 1923. This book may have occasional imperfections such as missing or blurred pages, poor pictures, errant marks, etc. that were either part of the original artifact, or were introduced by the scanning process. We believe this work is culturally important, and despite the imperfections, have elected to bring it back into print as part of our continuing commitment to the preservation of printed works worldwide. We appreciate your understanding of the imperfections in the preservation process, and hope you enjoy this valuable book.

  • af B. R. Ambedkar
    273,95 - 378,95 kr.

  • af B R_ambedkar
    128,95 kr.

  • af B R_ambedkar
    189,95 - 298,95 kr.

  • af B R_ambedkar
    128,95 kr.

  • af B R_ambedkar
    198,95 kr.

  • af B R_ambedkar
    143,95 kr.

  • af B R_ambedkar
    158,95 kr.

  • af B R_ambedkar
    263,95 kr.

  • af B R_ambedkar
    143,95 kr.

  • af B R_ambedkar
    248,95 kr.

  • af B R_ambedkar
    163,95 kr.

    जिन्हें लगता है कि बाबासाहेब आंबेडकर साम्यवाद या मार्क्सवाद के खिलाफ थे वो भयानक पूर्वाग्रह के शिकार हैं। आंबेडकर का मार्क्सवाद के साथ बड़ा ही गूढ़ रिश्ता था। उन्होंने खुद को समाजवादी कहा है लेकिन ये भी सच है कि वो मार्क्सवाद से गहरे प्रभावित थे। हालांकि मार्क्सवादी सिद्धांतों को लेकर उन्हें कई आपत्तियां थीं लेकिन दलितों के निहित स्वार्थों ने आंबेडकर को कम्युनिस्टों के कट्टर दुश्मन के रूप में स्थापित कर दिया और 'वर्ग' के जिस नजरिए से आंबेडकर इस समाज को देख रहे थे, दलितों ने उस नजरिए को पूरी तरह प्रतिबंधित कर दिया। प्रतिक्रियास्वरुप कम्युनिस्टों ने भी आंबेडकर और उनके विचारों पर प्रहार करना शुरू कर दिया।1950 के दशक की शुरुआत में आंबेडकर ने एक किताब पर काम करना शुरू किया। जिसका शीर्षक वह भारत और साम्यवाद रखना चाहते थे लेकिन वह पूरी नहीं हो पाई। प्रस्तुत किताब उसी के बचे हुए हिस्सों का संकलन है। उसके अलावा इसमें उनकी एक और अधूरी किताब क्या मैं हिंदू हो सकता हूँ? का एक भाग भी संकलित किया गया है। आनंद तेलतुम्बडे ने इस किताब की एक बेहद प्रभावशाली और तीक्ष्ण प्रस्तावना लिखी है। ये प्रस्तावना साम्यवाद के प्रति आंबेडकर के नजरिए को तो बताती ही है साथ ही साथ आंबेडकर और कम्युनिस्टों के बीच हुए विवादों और उन विवादों के ऐतिहासिक कारणों की पड़ताल भी करती है। तेलतुम्बडे इस प्रस्तावना में बताते हैं कि आंबेडकरवादियों और साम्यवादियों की आपसी एकता ही भारत के गरीबों और पीड़ितों को शोषणकारी शक्तियों के चंगुल से आजाद कर पाएगी। आंबेडकरवादियों और साम्यवादियों दोनों धड़ों के लिए यह एक बेहद जरूरी किताब है। आंखें खोल देने वाली किताब।

Gør som tusindvis af andre bogelskere

Tilmeld dig nyhedsbrevet og få gode tilbud og inspiration til din næste læsning.